“विश्व की अनियंत्रित जनसँख्या गम्भीर चिंता का विषय”

विश्व की बढ़ती जनसंख्या एक अभिशाप का रूप लेती जा रही है। वैसे तो कहा जाता है कि जनसँख्या किसी भी राष्ट्र के लिए अमूल्य सम्पदा होती है जो वस्तु और सेवाओं के उत्पादन, वितरण और उपभोग के लिए उत्तरदायी होती है तथा राष्ट्र के आर्थिक विकास का संवर्धन करती है। जनसँख्या साधन और साध्य दोनो का रूप होती है परन्तु अति किसी भी वस्तु की अच्छी नही होती। जिस प्रकार विश्व की जनसँख्या बढ़ रही है वो दिन दूर नहीं जब गणित के आंकड़े भी कम पड़ जाएंगे। कृषि योग्य भूमि निरन्तर घटती जा रही है। आवास की समस्या उत्पन्न हो रही है तथा झुग्गी झोपड़ियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। स्थिति ये हो रही है कि धीरे धीरे धरती पर इतनी भी भूमि नहीं बचेगी कि इंसान रह सके। आज समूचा विश्व आतंकवाद, भुखमरी,कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी और प्रदूषण जैसी विकट समस्याओं और खतरों से दो चार हो रहा है। बढ़ती आबादी समूचे विश्व को पतन के गर्त में धकेल रही है। कथित विकास की होड़ में हम मानव जीवन मूल्यों और जीवन की गुणवत्ता को दरकिनार करते जा रहे हैं। ये कैसा विकास है कि समाज का एक उच्च वर्ग ( चंद धनकुबेरों का एक समूह) संसार की सभी सुख सुविधाओं का भोग कर रहा है उन पर एकाधिकार जमाए बैठा है और एक बड़ी आबादी भूखे पेट सोने को विवष है। भूख से विश्व भर में न जाने प्रतिदिन कितनी मौतें होती हैं। लन्दन में ऑक्सफैम के अनुसार दुनिया की आधी सम्पदा सिर्फ दुनिया के आठ लोगों के पास है। जिनमे से छः अमेरिका एक स्पेन और एक मैक्सिको से सम्बंधित हैं।इनकी संपत्ति दुनिया के सबसे गरीब 3.6 अरब लोगों के पास कुल संपत्ति के बराबर है। जनसँख्या के आधिक्य से न केवल विश्व का आर्थिक संतुलन बिगड़ता है अपितु प्रकृति का पारिस्थिकीय संतुलन भी बिगड़ता है और फिर प्रारम्भ होता है असन्तुलित प्रकृति का क्रूरतम तांडव जिससे हमारा सम्पूर्ण जैव मंडल प्रभावित हुए बिना नही रह सकता। यदि हमने और आपने इस पर रोक नही लगायी तो प्रकृति स्वयं अपने क्रोध से क्रूरतम रूप धारण करके इसे नियंत्रित करने का प्रयास करेगी। चाहे यातायात समस्याएं हों या ऊर्जा संकट, पर्यावरणीय समस्याएं हों या बेरोजगारी , या फिर आवास इत्यादि की समस्या सब जनसँख्या वृद्धि के ही दुष्परिणाम हैं। विश्व पटल में निर्धनता और भुखमरी अपना आकार दिन प्रतिदिन बढ़ाती जा रही है। परमाणु बम और हाइड्रोजन बम के खतरों की चर्चा तो विश्व के प्रत्येक मंच पर होती है और उस पर गहन चिंता व्यक्त की जाती है। पर हम ये क्यों भूल जाते हैं कि जनसँख्या विस्फोट उससे भी कहीं अधिक खतरनाक है। थोक के भाव बच्चे पैदा करना कौन सी समझदारी है? विश्व में मानवधिकारों की बात करने वाले बताएं कि बच्चे को सिर्फ जन्म देकर दुनिया मे बदहाल अवस्था मे छोड़ देना क्या उस बच्चे के अधिकारों का हनन नही है? जन्म लेने वाले प्रत्येक बच्चे का पालन पोषण सुख सुविधा स्वास्थ्य और शिक्षा ये माँ बाप समाज और स्थानीय प्रशाशन का दायित्व बनता है। उन्नत एवं खुशहाल जीवन और जीवन जीने के लिए आवश्यक वस्तुएं अधिकार हैं उस बच्चे के। पर वास्तव में हो क्या रहा है शिक्षा और सुविधाओं के अभाव में जीविकोपार्जन हेतु बच्चों को कम उम्र से ही मजदूरी करनी पड़ती है। यह सिर्फ किसी एक राष्ट्र की समस्या नही अपितु कमोवेश प्रत्येक विकाशशील देश की कहानी है बल्कि अविकसित राष्ट्रों में तो स्थिति और भी भयावह है। जिस बच्चे को समाज मे एक उन्नत जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए था समाज मे अग्रणी की भूमिका में होना चाहिए था वो मजदूरी करके सुविधाओं के अभाव में एक कुपोषित जीवन जीने को मजबूर होता है। शिक्षा और रोजगार के अभाव में अनैतिकता जन्म लेती है। विश्व पटल पर बढ़ रही हत्या लूट बलात्कार आतंकवाद और व्यभिचार की घटनाओं को इससे जोड़ सकते हैं आप। झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बेरोजगारों के मन मे कुंठा जन्म लेती है और वहीं से विचारों का पतन प्रारम्भ होता है। कहाँ ले जा रहे हैं हम समाज को ये विचारणीय है।

जनसँख्या के आधिक्य से मानवीय आवश्यकताओं में दिनों दिन हो रहीे वृद्धि से सीमित प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन हो रहा है। अनियंत्रित औद्योगीकरण और उससे जन्मा प्रदूषण, शहरीकरण और वनों का कटाव, वाहनों की बढ़ती संख्या और उनसे उत्सर्जित अनेकों अनेक विषाक्त गैस और धुएं जहां कैंसर से लेकर स्वांस सम्बन्धी एवं चर्म व अन्य रोगों का कारण बन रही हैं वहीं भूमण्डलीय ऊष्मीकरण की गम्भीर समस्या से लेकर, समुद्री जलस्तर में बढ़ोत्तरी, वायुमंडल में ओजोन पर्त का निरंतर क्षय होना, खाद्यान्न संकट, प्राकृतिक एवं अन्य मानव जन्य आपदाओं को इसके दुष्परिणामों से जोड़ा जा सकता है। जनसँख्या वृद्धि का सबसे पहला दुष्परिणाम प्राकृतिक परिवेश को ही भुगतना पड़ता है। फिलीपींस और थाईलैंड जैसे देश जो कभी लकड़ी निर्यातक देशों में अग्रणी थे वनों के अत्यधिक कटाव और विनाश के कारण आज बाढ़ सूखा और पारिस्थिकीय विनाश के शिकार हैं।

जनसँख्या वृद्धि के अन्य सभी खतरों और दुष्परिणामों के साथ साथ जनसँख्या जेहाद जैसे षड्यंत्रों से भी हम किनारा नहीं कर सकते। एक समूह ऐसा भी है जो एक षड्यंत्र के अंतर्गत समूचे विश्व में अथाह जनसँख्या वृद्धि कर रहा है। घर मे खाने को हो या न हो , रोटी कपड़ा मकान और रोजगार की कोई चिंता नहीं पर हाँ दो बच्चे गोद में एक पीठ पर और और चार चार अगल बगल अवश्य होंगे। ऐसे समूह द्वारा जनसँख्या जेहाद के माध्यम से विश्व पर अपनी सत्ता स्थापित करने का स्वप्न व षड्यंत्र चिंताजनक तो है ही, हास्यास्पद भी है। संयुक्त राष्ट्र में उठाये गए रोहिंग्या शरणार्थियों का विषय हो या भारत मे बांग्लादेशी घुसपैठियों का या फिर समय समय पर विश्व के अन्य कई देशों के सामने आये शरणार्थी संकट का विषय हो इन्हें भी हम परिस्थिति अनुसार जनसँख्या विस्फोट व जनसँख्या जेहाद से जोड़ सकते हैं।

जनसँख्या नियन्त्रण पर काफी चर्चाएं और कार्यक्रम पहले से ही चलाए जा रहे हैं पर अभी तक सार्थक परिणामों के दर्शन नहीं हुए हैं। आज आवश्यकता है कि विश्व की बढ़ती जनसंख्या पर प्रभावशाली रोक लगायी जाए लोगों को जागरूक किया जाय व आवश्कतानुसार कानून बनाये जाएं तथा उनको व्यवहार में भी लाया जाए। सार्थक एवं अधिक प्रभावी कार्यशैली की आवश्यकता है ताकि वर्तमान एवं भविष्य में आने वाली मानव पीढ़ियों को स्वस्थ पर्यावरण में जीवन व्यतीत करने का अवसर मिल सके।

कुलदीप तिवारी
अध्यक्ष