निःसंदेह समाज परिवर्तनशील है और यह गतिशीलता ही उसकी उन्नति का मूल है। परन्तु क्या आज के परिवेश में यह परिवर्तन सकारात्मक दिशा में, नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों पर आधारित जैसा होना चाहिए, वैसा हो रहा है ? क्या हम वर्तमान में एक ऐसे समाज या भविष्य के एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए सही दिशा में अग्रसर हैं जिसमें हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को और समृद्ध व उन्नत बना सकें, या पथ भ्रमित हो चुके हैं ? मेरी समझ में आप सभी का उत्तर नकारात्मक ही होगा । हम आने वाली पीढ़ी को कैसा भविष्य देना चाहते हैं, कैसे समाज और परिवेश का निर्धारण करना चाहते हैं इसका चयन करना वर्तमान केे बुद्धिजीवियों और श्रेष्ठ जनों का दायित्व बनता है।

वर्तमान परिस्थितियाँ और परिवर्तन की प्रतिकूल दौड़ देखकर लगता है कि वास्तव में एक बड़े सामाजिक व वैचारिक आंदोलन की आवश्यकता है। भारतीय समाज व युवा वर्ग नैतिकता के मापदंड पर पतन की दिशा में है। छुआ छूत, भेदभाव, जातिवाद या ऊँच नीच, आज समाज में इनके लिए जगह कहाँ बची है? फिर भी आज की राजनीति के सबसे ज्वलंत विषय यही हैं। इसमें पिसता कौन है ? निर्धन और असहाय ! और सबसे आसान मोहरा बनता है समाज के आखिरी पायदान पर खड़ा व्यक्ति ! शिक्षा स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकतायें आज भी एक बड़े वर्ग के लिए स्वप्न समान हैं। चकाचौंध के इस युग में भारतीय राजनीति का विषय आज भी रोटी कपड़ा और मकान तक ही सीमित रह जाता है। किसानों द्वारा आत्महत्या वोट और राजनीति का खेल मात्र बना हुआ है। थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो आरक्षण और जाति जकड़ लेती है।

आरक्षण के नाम पर देश को बांटा जा रहा है, दीमक की तरह खोखला किया जा रहा है। प्रतिभा को डसने वाले जातिवादी विषैले डंक में कुटिल आरक्षण रूपी लेप लगाकर पीड़ा का उपचार नहीं अपितु उसको और हरा भरा किया जा रहा है जिससे ठेकेदारों की राजनीतिक दुकान चलती रहे। वर्ग विशेष का तुष्टिकरण इसी राजनीतिक दुकान का सबसे बड़ा उत्पाद है जो धीरे धीरे एक बार फिर से भारत को खण्डित करके एक अलग इस्लामिक देश बनाने की मांग पर अड़ गया है। योजनाबद्ध धर्मान्तरण और जनसँख्या जिहाद के माध्यम से कश्मीर से लेकर पश्चिम बंगाल असम केरल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैलता संगठित इस्लामिक वर्चस्व या फिर शिक्षा एवं सेवा के नाम पर नियत में खोट लिए हुए भारत के हर कोने में फैलता चर्च और ईसाइयत का साम्राज्य, ये सब वर्तमान भारतीय समाज, प्राचीनतम संस्कृति के अस्तित्व एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गम्भीर चिंता के विषय हैं।

शिक्षा और धर्म दोनों ही किसी भी समाज या सभ्यता में शशक्तिकरण के महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं जिसमें विद्यालय और बच्चे राष्ट्र के भविष्य की नींव रखते हैं। अपनी ही संस्कृति और इतिहास के बारे में आज उनकी अनभिज्ञता एवं अरुचि चिंता का विषय है। यदि आधार ही कमजोर रहेगा तो शक्तिशाली समृद्ध समाज की परिकल्पना स्वप्न मात्र ही तो होगी। बच्चों को सही दिशा देने का दायित्व अध्यापकों और अभिभावकों पर होता है परन्तु तथाकथित आधुनिकता की चकाचौंध, मीडिया द्वारा दुष्प्रचार और माँ बाप की पाश्चात्य सनक ने बच्चों को धर्म, संस्कृति, आध्यात्म, अनुशाशन, शिष्टाचार व अपनी ही जड़ों से दूर कर दिया है। गुरुः देवो भव का भाव लिए हुुुए श्रेष्ठ गुरुकुल परम्परा, आज आधुनिकता की भेंट चढ़ गयी। पाठ्यक्रम से नैतिक शिक्षा की किताब गायब हो चुकी है। अध्यापकों और छात्रों के बीच का सम्मानित अटूट बंधन व्यापार मात्र बन गया।

समाज के मार्गदर्शक के रूप में पूज्य अध्यापक वर्ग आज सबसे लाचार की श्रेणी में आ चुका है। लगभग प्रतिदिन ही कोई न कोई ऐसी घटना सामने आती है जिसमें छात्रों में बढ़ती आपराधिक व विकृत मानसिकता सामने आती है चाहे वो बारहवीं के छात्र द्वारा हरियाणा में प्रधानाध्यापिका को गोली मार देने की घटना हो, गुड़गांव में छोटे बच्चे का वहीं के दूसरे छात्र द्वारा निर्ममता से हत्या हो, दिल्ली में सातवीं कक्षा की छात्रा द्वारा मासूम पर हमला हो, दिल्ली में ही नौवीं कक्षा के चार दोस्तों में झगड़े के बाद तीनों द्वारा मिलकर चौथे की हत्या हो, बच्चों में नशे की बढ़ती लत हो या फिर और भी बहोत कुछ । कारण है गलत कानून , अध्यापकों से उनके अधिकार छीन लेना अध्यापकों को बच्चों के दुश्मन की तरह दिखाना।

कहावत प्रचलित है कि भारत में नियम कानून बाद में बनते हैं उनका तोड़ पहले ढूंढ लिया जाता है। सत्य भी है, चाहे यातायात हो या फिर कोई भी अन्य नियम कानून, पालन करना प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानते हैं हम। सभ्यता, शिष्टाचार और विनम्रता का बोध कहीं पीछे छोड़ते जा रहे हैं हम। टीवी, सिनेमा और विज्ञापनों में परोसी जा रही नग्नता आधुनिकता की प्रतीक बन चुकी है। 21वीं सदी के नाम पर और खुले विचारों की दुहाई देकर ऐसा चारित्रिक पतन क्या परिवर्तन की सही दिशा को इंगित करता है? इस पर भी मनन और आत्ममंथन की आवश्यकता है। सामाजिक परिवर्तन तो चाहिए, पर वास्तव में दिशा क्या हो तय करना पड़ेगा।

मीडिया में बैठे धन के लोभियों ने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को राजनीतिक कोठा बनाकर रख दिया है जहाँ कोई भी आ जा सकता है , बस खजाना लुटाइये और खबरों का बाज़ार आपके हिसाब से सजने को तैयार है। बड़े बड़े शिक्षण संस्थान जहाँ राष्ट्र की नींव को शशक्त बनाने के लिए चरित्र निर्माण होना चाहिए वहाँ राष्ट्र द्रोह के कीड़े पनप रहे हैं जो इतने शक्तिशाली और प्रौढ़ हो चुके हैं कि पूरे समाज में ही विष घोलने को तैयार हैं। अलगाववादी , वामपंथी व तुष्टिकरण करने वाले संगठन एवं देश के टुकड़े करने की चाह रखने वाले अराजक तत्व पूरी तत्परता से सक्रिय हैं पर सरकारें और प्रशाशनिक तंत्र मूकदर्शक बन इन दैत्यों का समर्थन कर रहे हैं। लोकतंत्र का मंदिर संसद, अब स्तरहीन व कुटिलता से परिपूर्ण चर्चाओं के लिए जाना जाता है जहां देशद्रोह के नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में लिए जाते हैं और राष्ट्रगान व राष्ट्रध्वज का अपमान या सम्मान व्यक्तिगत मान्यता की श्रेणी में गिना दिये जाते हैं। मंदिर में पूजा पाठ और धार्मिक आयोजनों के लिए अनुमति होनी चाहिए पर मस्जिदों के ऊपर अनाधिकृत लाउडस्पीकर लगा कर ध्वनि प्रदूषण और नमाज़ के नाम पर सड़क जाम करना या रेलवे स्टेशन पर अतिक्रमण करना धार्मिक स्वतंत्रता है। माननीय न्यायालय व न्यायाधीश अपने क्रियाकलापों और पक्षपातपूर्ण आदेशों के कारण जनमानस के बीच अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। आम जनमानस के लिए समय पर न्याय की आशा करना न्यायालयों की परम्परा के विरुद्ध है। मंथन और विचार करें तो ऐसे अनगिनत प्रश्न दिमाग में आते हैं जिनके उत्तर दे पाना सामयिक परिस्थिति के अनुसार कठिन है।

इन सभी सामाजिक और वास्तविक समस्याओं के समाधान का दायित्व हमको अपने कंधे पर लेना होगा। हमको और आपको सोचना है कि भविष्य के भारत को हम क्या देना चाहते हैं, राष्ट्रद्रोह और सामाजिक विकलांगता रूपी कोढ़ या फिर अपनी प्राचीन समृद्ध व गौरवशाली संस्कृति का विस्तार?

ऐसा कोई भी परिवर्तन या सुधार संगठन के बिना संभव नहीं है। संगठित रहकर ही हम कोई भी आंदोलन या परिवर्तन कर सकते हैं। सरकार , शाशन या प्रशाशन से आस लगाकर लाचार बने शांत बैठे रहना मूर्खता मात्र है। अपनी बात, अपने विचार बुलन्द स्वर में उचित मंच तक पहुँचाना हमारा ही दायित्व है और हम ही मिलकर सकारात्मक परिवर्तन करेंगे। आवश्यकता है समाज के दुश्मनों से निपटने की। भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद तो अपने कर्तव्य के लिए अमर हो गए पर हमारी आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है, अपनी सुख सुविधा, मनोरंजन, मस्ती , नशा , मौज़ और दिखावे के अलावा उसे कुछ नज़र नही आ रहा । उसको सही दिशा दिखाने का कार्य संगठन के रूप में करना है। हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? स्वामी विवेकानंद और पंडित दीन दयाल उपाध्याय द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं के प्रचार प्रसार की तथा अशफ़ाक़ उल्ला खां और डॉ अब्दुल कलाम जी से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। आइये मिलकर शपथ लेते हैं कि राष्ट्र हित तथा सामाजिक उन्नति एवं सुरक्षा के लिए हम हर संभव प्रयास करेंगे। और संगठित रहकर नैतिकता से परिपूर्ण एक स्वर्णिम, समृद्ध व शक्तिशाली समाज की कल्पना को साकार करेंगे।